द स्टेट न्यूज़ हिंदी

सच दिखाते हैं हम……..

विशेष

लता मंगेशकर जयंती विशेष…‘रहें ना रहें हम, महका करेंगे, बन के कली बन के सबा बागे वफा में’

श्रीराम पुकार शर्मा। भले ही यह ‘नज़्म’ 1966 की प्रसिद्ध फिल्म ‘ममता’ का कर्णप्रिय सुरीली गीत रहा है, जो मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा रचित और रोशन द्वारा संगीतबद्ध किया गया है। परंतु अपने मधुर स्वर में इस गीत को अपने जीवन की अमर अभिलाषा के रूप में अभिव्यक्त की है, स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने। हकीकत में परलोकगामी ‘स्वर कोकिला’ आज भी हम सबके बीच ‘महका कर रही हैं, बन के कली, बन के सबा, बाग़े वफ़ा में’।

विगत कई दशकों से अपनी सुमधुर स्वर लहरियों से सिर्फ भारत ही नहीं, वरन विश्व के अधिकांश संगीत-प्रेमियों की आवाज बनी, ‘भारतरत्न’ से सम्मानित, ‘भारत की बेटी’ और माँ भारती की वरदपुत्री लता मंगेशकर को उनकी 94वीं जयंती पर हम सादर हार्दिक नमन करते हैं।

‘स्वर कोकिला’ समादृत गायिका लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर, 1929 को इंदौर में एक माध्यम वर्गीय गोमंतक मराठा परिवार पंडित दीनानाथ मंगेशकर व शेवंती मंगेशकर के आँगन में उनकी सबसे बड़ी पुत्री के रूप में हुआ था। लता का वास्तविक नाम ‘हेमा मंगेशकर’ था, जो बाद में ‘लता मंगेशकर’ के रूप में परिणत हो गया। उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर रंगमंच के कलाकार और शास्त्रीय गायक थे। उनकी इच्छा थी कि लता भी संगीत के क्षेत्र में काम करे। इसलिए लता जब पाँच साल की हुई,

तभी उन्होंने उनको और बाद में अपनी चारों संतानों उषा, मीना, आशा तथा हृदयनाथ को शास्त्रीय संगीत पढ़ने की ओर अग्रसर किया। कालांतर में ये सभी ‘मंगेशकर भाई-बहनों’ ने पितृ इच्छानुरूप संगीत को ही अपना भविष्य और अपनी जीविका के रूप में चयन किया। उनके प्रथम गुरु उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर ही थे।

लता मंगेशकर 1938 में शोलापुर के ‘नूतन थिएटर’ में अपनी पहली सार्वजनिक उपस्थिति दी थी, जहाँ उन्होंने ‘राग खंबावती’ और दो मराठी गीत गाए थे। इसके लिए उन्हें इनाम स्वरूप २५ रुपये भी प्राप्त हुए थे। कालांतर में उस्ताद अमानत अली खान, गुलाम हैदर और पंडित तुलसीदास शर्मा आदि सक्षम गुरुजनों की सनिध्यता को प्राप्त कर लता का संगीत व गायन जीवन क्रमशः निखरता ही गया। कालांतर में उन्होंने लगभग तीस से ज्यादा भाषाओं में फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी लगभग पचास हजार से भी अधिक गाने गाये हैं।

लेकिन लता अभी मात्र तेरह वर्ष की ही थीं, कि तभी 1942 में उनके पिता की हृदय रोग के कारण मृत्यु हो गई। फलतः घर में अर्थजन्य परेशानियाँ भयानक रूप में आन खड़ी हुई। चुकी लता को बचपन में फिल्मों में अभिनय करने की कोई खास चाहत न थी, लेकिन भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण पारिवारिक बोझ उनके ही कोमल कंधों पर आन पड़ा।

प्रकृति का भी नियम है कि जब वह कुछ छीनता है, तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ दे भी देता है। ऐसे विकट समय में लता के परिवार के लिए देवदूत के रूप में सामने आये उनके पिता के एक मित्र मास्टर विनायक जी और उन्होंने अपने सामर्थ्य साधन के अनुकूल इस असहाय ‘मंगेशकर परिवार’ को सहारा प्रदान किया तथा लता मंगेशकर को एक गायिका बनाने के क्षेत्र में हर संभव प्रयास लिया।

पार्श्व-गायिकी के क्षेत्र में उस समय स्थापित हो पाना लता के लिए कोई सरल कार्य न था। इस क्षेत्र में उस समय के जानी-मानी पार्श्व-गायिकाएँ नूरजहाँ, अमीरबाई कर्नाटकी, शमशाद बेगम और राजकुमारी आदि की फिल्मी दुनिया में तूती बोलती थी। उस्ताद गुलाम हैदर, जिन्होंने पहले नूरजहाँ की खोज की थी, ने लता की प्रतिभा को पहचाना और फिल्म निर्माता शशिधर मुखर्जी के पास ‘शहीद’ नामक फिल्म में लता को एक मौका देने की सिफारिश की। लेकिन शशिधर मुखर्जी ने यह कहकर मना कर दिया कि लता की आवाज जरुरत से ज्यादा सुरीली है। फिर मास्टर विनायक जी की कोशिश से उन्हें 1942 में मराठी फिल्म ‘किटी हसाल’ के लिए अपना पहला गाना ‘नाचू या गड़े, खेलो सारी मणि हौस भारी’ गाया, लेकिन दुर्भाग्यवश बाद में इसे फिल्म से हटा दिया गया।

अपने पारिवारिक अर्थगत परिस्थितियों से निपटने के लिए लता अपनी इच्छा के विरूद्ध कुछेक हिंदी और मराठी फ़िल्मों में अभिनय भी की थी। अभिनेत्री के रूप में उनकी पहली फ़िल्म मराठी में ‘पाहिली मंगलागौर’ (1942) रही। बाद में उन्होंने ‘माझे बाल’, ‘चिमुकला संसार’, ‘गजभाऊ’ ‘बड़ी माँ’, ‘जीवन यात्रा’, ‘माँद’, ‘छत्रपति शिवाजी’ आदि फिल्मों में अभिनय की। इनमें से कई फिल्मों में उन्होंने खुद की और अपनी बहन आशा के लिए पार्श्व-गायन भी किया था।

तत्पश्चात मराठी फिल्म ‘पहिली मंगला-गौरिन’ के लिए लता जी ने ‘नताली चैत्रची नवलई’ गाना गाया। फिर ‘गजभाऊ’ फिल्म के लिए ‘माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तू’ पहला हिंदी गाना गया। उनकी प्रतिभा से फिल्म निर्माता वसंत जोगलेकर काफी प्रभावित हुये थे और सन् 1947 में उन्होंने अपनी फिल्म ‘आपकी सेवा में’ का एक गाना गाने के लिए लता जी को मौका दिया, जो काफी चर्चित हुआ और जिससे उनकी गायिकी प्रतिभा को पहचान मिली। फिर फिल्म ‘मजबूर’ का ‘दिल मेरा तोड़ा,

मुझे कहीं का ना छोड़ा तेरे प्यार ने’ जैसे गानों ने लता जी को फिल्मों की प्रसिद्ध गायिका बना दिया। 1949 में लता जी को एक और ऐसा ही मौका फ़िल्म ‘महल’ के ‘आयेगा आनेवाला’ गाना से मिला। वह गाना अत्यंत ही सफल रहा और लता जी तथा उस फिल्म की अभिनेत्री मधुबाला दोनों के लिए बहुत शुभ साबित हुआ। इसके बाद पार्श्वगायिकी के क्षेत्र में लता जी पूर्णतः स्थापित हो गईं और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

लता जी पहले तो अपने पूर्ववर्ती गायकों और गायिकाओं की ही गायन शैली को अपनाती रही, पर बाद में उन्होंने स्वयं अपनी एक अलग शैली ही बना ली। उन्होंने गायन के क्षेत्र में सुरीलापन, लचकदारी स्वर के साथ ही शास्त्रीय संगीत की रागदानी, राजस्थानी, पहाड़ी, पंजाबी, बंगाली आदि लोकगीतों की शैली को भी अपनायी।

लता जी ने समय-समय पर अपनी गायिकी के अतिरिक्त फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी अपने आप को परखा, जिसमें वह सफल भी रहीं। मराठी में ‘वडाई’ (1953), जबकि

हिन्दी में ‘झांझर’ (1953), ‘कंचन’ (1955) और ‘लेकिन’ (1990) उन्होंने ये चार फिल्मों का निर्माण किया, जिसमें संगीत और अभिनय का अद्भुत मणिकांचन संयोग दिखाई देता है। ये मात्र चार फ़िल्में ही लता जी को एक सफल फिल्म-निर्माता के रूप में भी स्थापित करती हैं।

सन् 1962 के चीन-भारतीय युद्ध की पृष्ठभूमि के खिलाफ नई दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृषणन और प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में लता जी 27 जनवरी, 1963 को कवि पंडित प्रदीप कुमार द्वारा रचित और सी. रामचन्द्रन द्वारा संगीत से सजाये ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आँख में भर लो पानी’ एक गैर-फ़िल्मी देशभक्ति गीत गाई। इस गीत को सुनकर मंच पर विराजमान तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आंखों से भी आँसू बहने लगी थीं और स्टेडियम में उपस्थित समस्त श्रोताओं की आँखें नम हो गई थीं। यह उनके स्वर का ही कारुणिक जादू था।

अपनी गायिकी के सात दशक के लंबे सफर में लता मंगेशकर ने प्रेम, विरह, हर्ष-विषाद, भजन, गजल, लोकगीत, त्योहार, विवाह, लोरी, देशभक्ति, सामाजिक अर्थात देखा जाए तो जीवन के हर क्षण और घटना संबंधित भावों को अपनी आवाज दी है। फिर 6 फरवरी 2022 का वह दिन भी आया, जिसे शायद ही कोई संगीत और गीत-प्रेमी सहृदय भुला पाए। उस दिन लाखों-करोड़ों संगीत-प्रेमियों को रुलाते हुए स्वर की देवी लता मंगेशकर मुम्बई के एक अस्पताल में अपनी आखरी साँस ली।

फिल्मों में लता मंगेशकर के विशेष योगदान को देखते हुए उन्हें अनगिनत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित किया गया था। उनका नाम ही एक तरह से पुरस्कार-सम्मान बन गया है। वह एकमात्र ऐसी जीवित व्यक्ति थीं, जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते रहे थे। उनको ‘फिल्म फेयर पुरस्कार’ (छः बार), ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ (तीन बार), ‘महाराष्ट्र सरकार पुरस्कार’ (दो बार), ‘पद्म भूषण’ (1969) ‘गिनीज़ बुक रिकॉर्ड’ (1974), ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ (1989), ‘फिल्म फेयर का लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार’ (1993), ‘स्क्रीन का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार’ (1996), ‘राजीव गाँधी पुरस्कार’ (1997), ‘एन.टी.आर. पुरस्कार’ (1999), ‘पद्म विभूषण’ (1999), ‘ज़ी सिने का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार’ (1999), ‘आई.आई.ए.एफ. का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार’ (2000), ‘स्टारडस्ट का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार’ (2001), भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (2001), ‘नूरजहाँ पुरस्कार’ (2001), ‘महाराष्ट्र भूषण’ (2001) आदि तथा उन्हें 6 विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा ‘डॉक्टरेट’ की डिग्री से सम्मानित किया गया। भारतीय गीत-संगीत में उनके योगदानों के लिए राष्ट्र ने उन्हें 2019 में उनके 90वें जन्मदिन पर “राष्ट्र की बेटी” की उपाधि से सम्मानित किया ।

लता जी ने अपने एकाकी जीवन के संदर्भ में एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘मेरी छोटी आयु में ही हमारे पिता का निधन हो गया। ऐसे में घर की जिम्मेदारी मुझ पर आन पड़ी। ऐसे में कई बार शादी का ख्याल आता भी था, पर उस पर अमल नहीं कर सकती थी। बेहद कम उम्र में ही मैं काम करने लगी थी। सोचा कि पहले सभी छोटे भाई-बहनों को व्यवस्थित कर दूँ। फिर बहनों की शादी हो गई। उनके बच्चे हो गए। तो उन्हें संभालने की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। इस तरह से वक्त दर वक्त निकलता चला गया और शादी का विचार हमेशा-हमेशा के लिए मिट गई। अब तो एकाकी जीवन में ही संतुष्टि का अनुभव करती हूँ।’

लता जी ने अपने गीत-संगीत को कभी अपना पेशा नहीं, वरन् संगीत-देवी की आराधना ही मानती रही थीं। वे हमेशा साज-शृंगार से दूर रहीं, चाहे स्टूडियो में गाने के रिकॉर्डिंग हो या फिर किसी स्टेज पर गायिकी, हमेशा नंगे पाँव गाना गाती थीं। उन्होंने कभी ‘कैबरे’ या फिर अश्लील गाने को नहीं गया और न ही किसी तरह का धूम्रपान और शराब का सेवन ही किया। इस प्रकार लता जी गीत-संगीत की साक्षात देवी सरस्वती ही रही थीं। उन्होंने अपने गायन की अनूठी और नैसर्गिक शैली से हिंदी फिल्म गीत-संगीत को भी पूजा-साधना के रूप में परिणत कर स्वयं को एक किंवदंती बना दीं।

(लता मंगेशकर जयंती, 28 सितंबर, 2023)

द स्टेट न्यूज़ हिंदी